श्री भक्तिधाम आश्रम
भक्ति माँ का अवतरण एवं प्रारम्भिक जीवन
ईसवीं सन् 1922 के दिसम्बर माह की 25वीं तारीख को कुमांऊ के सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं व्यापारिक गतिविधियों के केन्द्र अल्मोड़ा नगर के 'पोखरखाली' नामक स्थान में इस शक्ति-तत्व का अवतरण हुआ. पिता श्री कुंवर सिंह एवं माता श्रीमती राधिका देवी के अनन्त जन्मों का पुण्य-प्रकाश जब देह रूप में आविर्भूत हुआ था तब कोई नहीं जानता था कि आध्यात्मिक परम्परा के धनी, देव शक्तियों की क्रीड़ा भूमि इस कूर्माचल में स्वयं महामाया अपनी क्रीडास्थली का चयन कर चुकी थी। सामान्यतः शिशु एकान्त से भय का अनुभव करते हैं तथा सुरक्षित एवं संरक्षित स्थान में ही क्रीड़ा का आनन्द लेते हैं किन्तु उस एकान्त प्रिय बालिका ने कभी भी लौकिक-संरक्षण की आवश्यकता अनुभव नहीं की.हां गुड्डे-गुड़िया का खेल इस बालिका को भाता था पर गुड्डा-गुड़िया सामान्य नहीं थे. गुड्डा होता कृष्ण और गुड़िया होती राधिका. पूरा समय गुड्डे को कृष्ण और गुड़िया को राधिका रूप में सज्जित करने में बिता देती और उस दिव्य रूप को देख-देख कर मुग्ध बालिका बसन्ती का पूरा दिन व्यतीत हो जाता.
शैशव की कतिपय वर्षों की लोकोत्तर लीला के पश्चात बालिका बसन्ती को गृहस्थ-धर्म के पालन के लिए विवाह-बन्धन स्वीकार करना पड़ा. उस समय इनकी उम्र लगभग 12-13 वर्ष की थी. गृह-कार्यों के बीच भी एकाएक समाधिस्थ हो जाना उनके परिवार के सदस्यों के लिए आश्चर्य का विषय नहीं होता था. अठारह वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी पहली पुत्री चम्पा को जन्म दिया. तदनन्तर एक पुत्र-गजेन्द्र और उसके बाद दो कन्याओं गोपा और रमा की माता बनीं. एकान्त चिन्तन के लिए झंडो धार (राजभवन) या फिर हनुमानगढ़ी के आसपास का क्षेत्र अधिक रुचिकर लगता था. देवदार के ऊंचे-ऊंचे वृक्षों के नीचे घन्टों बैठकर अनन्त सत्ता साक्षात्कार का प्रयत्न करना ही उन दिनों मांश्री का एक मात्र लक्ष्य था। सुबह से शाम हो जाती पर चिन्तन का प्रवाह निरन्तर बना रहता. आत्मिक लाभ के लिए कभी पूज्य नानतिन बाबा के आश्रम तो कभी देव-मन्दिरों की शरण लेतीं. कभी रोगियों की सेवा में आनन्द खोजतीं तो कभी अनवरत 'श्री रामचरितमानस' के पाठ में डूब कर सांसारिक चिन्तन से परे हो जातीं, गृह-कार्यों में पड़ने वाली बाधाओं को ईश्वरीय आनन्द की मस्ती में विस्मृत कर देती।


गुरु की संगत
लगभग पचास वर्ष पूर्व सन् 1934-35 के करीब जब महाराज नीम करौरी जी अपने उत्तराखण्ड भ्रमण के दौरान नैनीताल आने लगे तब उन्होंने सर्वप्रथम अपनी चरण-धूलि से नैनीताल से करीब 3 कि.मी. दूर स्थित मनोरा पर्वत की चोटी को न केवल पवित्र किया वरन् पूरी तरह अपनाया 'हनुमानगढ..
किसी सिद्ध महात्मा के यहां आगमन की भनक मिलते ही ईश्वर प्राप्ति की तड़प को मन में लिए बसन्ती का मन आन्दोलित हो उठा. कैसे होंगे महाराज जी? क्या बोलते होंगे? शायद मुझे राह दिखाने के लिए ही कन्हैया की इच्छा से वे यहां आए हों इस तरह ज्ञान-पिपासा लिए नित्य 'हनुमानगढ़' जाने लगीं. हनुमान -विग्रह के आसपास झाडू-बुहारी करना, साफ-सफाई करना फिर पूजा उपासना करना मां की दिनचर्या में सम्मिलित हो गया. पूज्य बाबा जी के दिव्य दर्शन के बाद से मां का भक्ति मार्ग प्रशस्त होता चला गया. विधाता की पूर्व योजनानुसार मां को अपने पूज्य गुरुदेव, पथ-प्रदर्शक बाबा नीम करौरी जी का दर्शन एवं कृपा अचम्भित कर देने वाली थी.
हनुमान गढ़ी के निर्माण कार्य पूरा होने के बाद पूज्यपाद नीम करौरी जी ने 'भूमियाधार' नामक स्थान, जो कि भवाली से लगभग 4 कि.मी. दूर है, को हनुमान विग्रह की स्थापना लिए चयन किया. तब बाबाजी अधिकांश समय वहां रहते थे. इस अवधि में भक्ति मां नित्य पैदल ही दर्शनों के लिए भूमियाधार जाने लगीं. मौसम जैसा भी हो, मां की इच्छा के आगे वह कभी बाधक नहीं रहा. भूमियाधार में निवास करते हुए श्री महाराज जी ने कैंची धाम का निर्माण कार्य प्रारम्भ करवा दिया था. इसलिए जब महाराज जी ऊँची-धाम होते तो मां का पैदल ही कैंची धाम जाने का क्रम शुरू हो जाता.
मौन की साधना
साधना के चरम तक पहुंचने के लिए और अपने गुरु की कसौटी में खरा उतरने के लिए श्रीमाँ को कई बार अग्नि परीक्षाओं से गुजरना पड़ा. महाराज जी ने उन्हें कंचन बनाने के लिए ही शायद बार-बार प्रताड़ित किया, क्रोध किया, लेकिन मां ने अविचल भाव से मान-अपमान से निरपेक्ष होकर गुरु की परीक्षाओं की असि धार में चल कर दिखा दिया. स्वयं के देवत्व का विकास करके अपनी दैवी विभूतियों को लोकहित में अर्पण करने को तत्पर श्रीमां ने अपने श्रद्धेय गुरु की आज्ञा से मौन व्रत धारण करके, श्रद्धा और विश्वास की गंगा-जमुना में अपनी वाणी रूपी सरस्वती को अन्तर्लीन करके मानो स्वयं के व्यक्तित्व को ही प्रयागराज बना दिया.
प्रारम्भिक दिनों में यह मौन-व्रत कुछ विशेष दिवसों में कुछ घण्टों की अवधि तक रहता था. शनैः शनैः वृद्धि करने के बाद मौन की अवधि घण्टों से दिवसों में परिणित कर दी गई. बाद में दिवसों की गणना भी छोड़ निरन्तर मौन-व्रत ही साध लिया. मौनव्रत धारण करने के कुछ समय उपरान्त तक भक्ति मां रामायण तथा श्रीमद्भागवत् का पाठ सस्वर किया करती थीं. कीर्तन में भी उनका स्वर सधा हुआ था.सम्पूर्ण संशयों का उच्छेद करने वाली, बोध स्वरूपिणी सरस्वती जो सात प्रकार के स्वरों की अधिष्ठात्री होने के कारण स्वरात्मिका भी कहलाती है. श्रीमां ने इसी स्वरात्मिका शब्द शक्ति के उच्चारण पर धीरे-धीरे उक्त अवसरों (रामायण, भागवत् कीर्तन) पर भी विराम लगाकर मन रूपी मनका को अनवरत रूप से नाम-जप में तल्लीन कर दिया।उच्चारण में अनन्त रूप से प्रवाहित होने वाली शक्ति आन्तरिक शक्ति में समाहित होकर एक महाशक्ति का रूप लेने लगी.
साधूनां दर्शनम पुण्यं तीर्थ भूता हि साधवः. काले फलन्ति तीर्थानि सद्यः साधु समागमः
सन्तों का दर्शन ही पुण्य है. साधु स्वयं तीर्थ स्वरूप है. तीर्थ तो कालान्तर में फल देते हैं किंतु संतो का दर्शन तुरन्त फलदायी होता है.
